भगवान शिव हैं योग के प्रवर्तक !

                योग का संदेश है कि किसी इनसान की सेहत और उसका कल्याण उस इनसान के हाथ में ही रहे। इनसान यह इंतजार न करे कि कोई आसमानी शक्ति, कोई नेता, संगठन या बाहरी दुनिया की कोई ताकत आकर उसके स्वास्थ्य की देखभाल और उसका कल्याण करेगी। इनसानी जीवन का अनुभव अपने भीतर से ही पैदा होना चाहिए. आपके जीवन के अनुभव किस तरह के और किस स्तर के हों, योग के जरिए यह आप खुद तय कर सकते हैं।
 

                भारत में आध्यात्मिक प्रगति की बात करें तो हर किसी का एक ही लक्ष्य रहा है- मुक्ति। कभी सोचा है, ऐसा क्यों है? दरअसल, इस देश में आध्यात्मिक विकास और मानवीय चेतना को आकार देने का काम सबसे ज्यादा एक ही शख्सीयत के कारण है। जानते हैं कौन है वह? वह हैं भगवान शिव। आदियोगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है. सांसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है।

                 योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव-विभोर कर देने वाला नृत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुंचने लगे। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा, क्योंकि आदियोगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके ईद-गिर्द क्या हो रहा है! उन लोगों ने वहीं कुछ देर इंतजार किया और फिर थक-हार कर वापस लौट आए। लेकिन उन लोगों में से सात लोग ऐसे थे, जो थोड़े हठी किस्म के थे. उन्होंने ठान लिया कि वे शिव से इस राज को जान कर ही रहेंगे, लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।

                 अंत में उन्होंने शिव से प्रार्थना की कि उन्हें इस रहस्य के बारे में बताएं। शिव ने उनकी बात नहीं मानी और कहने लगे, 'मूर्ख हो तुम लोग! अगर तुम अपनी इस स्थिति में लाखों साल भी गुजार दोगे, तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे।  इसके लिए बहुत ज्यादा तैयारी की आवश्यकता है। यह कोई मनोरंजन नहीं है। ये सात लोग भी कहां पीछे हटने वाले थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और तैयारी शुरू कर दी। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए और ये लोग तैयारियां करते रहे, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज करते जा रहे थे। 84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चले गए। पूर्णिमा के इस दिन आदियोगी शिव ने इन सात तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

                 शिव ने इन सातों का अगले 28 दिनों तक बेहद गहराई से आकलन किया और अगली पूर्णिमा पर इनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया। तभी से इस दिन को गुरु पूर्णिमा कहा जाने लगा। केदारनाथ से थोड़ा ऊपर जाने पर एक झील है, जिसे कांति सरोवर कहते हैं। इस झील के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़ कर बैठ गए और अपनी कृपा उन सात लोगों पर बरसानी शुरू कर दी। इस तरह योग विज्ञान का संचार होना शुरू हुआ।

                  आज हम उन सात तपस्वियों को 'सप्तऋषि' के नाम से जानते हैं। इन सातों ऋषियों को विश्व के अलग-अलग हिस्सों में भेजा गया, ताकि ये अपना ज्ञान आम आदमी तक पहुंचा सकें। उनमें से अगस्त्य मुनि ने भारतीय उपमहाद्वीप में योग का प्रसार किया। 

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